
जैसे कि इन्सानियत भी शर्मसार हो गयी है
आज के इस भौतिकतावादी युग में
ऐसा लगता है जैसे कि इन्सानियत भी शर्मसार हो गयी है,
परिन्दों के पंखों पर सवार होकर दूर कहीं क्षितिज में जाकर छिप गयी है।
इन्सान के अंदर की हैवानियत को मौका मिल गया है अपना रंग दिखाने का,
और वह भी हैवान बन कर ही रह गया है।
कम से कम आज का समय तो यही गवाही दे रहा है,
कल क्या हो जाय, यह तो भविष्य ही बता सकता है।
दर्द
कभी कभी हरा ही रहने दें जख्मों को
किसी का दिया दर्द तो याद आता है।